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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2642
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर

अध्याय - 3

धर्म : अर्थ एवं वर्गीकरण

(Dharma : Meaning and Classification)

 

प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप परिभाषा दीजिए तथा इसके क्षेत्रों का उल्लेख करते हुए इसकी समस्याओं का विश्लेषण कीजिए।

अथवा
धर्म-दर्शन क्या है? इसकी विषय-वस्तु की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
अथवा
धर्म-दर्शन की परिभाषा दीजिये।
अथवा
धर्म-दर्शन के स्वरूप और क्षेत्र की व्याख्या कीजिए।
अथवा
धर्म-दर्शन का स्वरूप व क्षेत्र स्पष्ट कीजिए।

उत्तर -

साधारणतः धर्म का अर्थ, इस्लाम, जोरेस्ट्रियम, बौद्ध, ईसाई आदि ऐतिहासिक धर्म से लगाया जाता है। इन धर्मों के कुछ न कुछ आधार होते हैं तथा मान्यताएँ होती हैं। धर्म-दर्शन ऐतिहासिक धर्मों के व्यवहारों तथा आधारों का मूल्यांकन प्रस्तुत करता है। धर्म-दर्शन उस दार्शनिक क्रिया का नाम है जो धर्म की बौद्धिक विवेचना करता है। धर्म का दार्शनिक विवेचनधर्म- दर्शन हैं।

धर्म-दर्शन विश्व के विभिन्न धर्मों के इतिहास, मानवशास्त्र, धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन हेतु, धर्म-मनोविज्ञान आदि विषयों में धर्म से सम्बन्धित भिन्न-भिन्न तथ्यों को एकत्र करता है। उक्त विषयों से धर्म-दर्शन का आविर्भाव नहीं होता है। कहा गया है कि "प्रत्ययों के बिना संवेदन अन्धे हैं इसीलिए धर्म दर्शन ने धर्म से सम्बन्धित विभिन्न तथ्यों के संकलन के द्वारा धर्मों का मूल्याँकन होता है। धार्मिक तथ्यों के विश्लेषण से सामान्य सिद्धान्तों की खोज करना धर्म-दर्शन का प्रमुख उद्देश्य है।'

प्रो. ब्राइटमैन ने धर्म-दर्शन की परिभाषा इन शब्दों में दी है- "धर्म-दर्शन धर्म की बौद्धिक व्याख्या की खोज का एक प्रयास है। यह धर्म का सम्बन्ध अन्य अनुभूतियों से बताकर धार्मिक विश्वासों की सत्यता, धार्मिक मनोवृत्तियों एवं आधारों का मूल्य स्पष्ट करता है।"

प्रो. राइट ने धर्म को इस प्रकार परिभाषित किया है- "धर्म दर्शन धर्म की सत्यता तथा धर्म के व्यवहारों एवं विश्वासों की मूल विशेषताओं का सम्पूर्ण जगत् की दृष्टि से विवेचन करता है तथा धर्म का सम्बन्ध तत्व से निश्चित करता है।' 

प्रो. निकोलसन के शब्दों में "धर्म दर्शन का उद्देश्य धार्मिक विश्वासों का अन्य मौलिक विश्वासों के साथ, जो मानव जीवन को संचालित करते हैं, संयोजन स्थापित करना है।"

प्रो. डी. एम. एडवर्ड ने धर्म की परिभाषा इन शब्दों में दी है- "धर्म-दर्शन धार्मिक अनुभूति के स्वरूप, व्यापार मूल्य तथा सत्यता की दार्शनिक खोज है।' ईश्वर के सम्बन्ध में किसी व्यक्ति विशेष की जो अनुभूति है उसे धार्मिक अनुभूति कहा जाता है।

धर्म-दर्शन अर्द्धविज्ञान की शाखा है अर्द्धविज्ञान में मूल्यों का सामान्य अध्ययन होता है। धर्म-दर्शन को अर्द्धविज्ञान की शाखा इसलिए कहा जाता है कि धर्म का उद्देश्य आध्यात्मिक मूल्यों की प्राप्ति है। इस विचार का समर्थन ब्राइटमैन ने किया है। राइट ने धर्म-दर्शन को तत्व विज्ञान की शाखा माना है। धर्म-दर्शन का मुख्य विषय ईश्वर विचार है। ईश्वर एक तत्वशास्त्रीय प्रत्यय है अतः धर्म-दर्शन तत्वशास्त्र की देन है।

सामान्य रूप से धर्म-दर्शन की विषय-वस्तु 'धर्म' है। धर्म के अनेक पक्ष होते हैं और धर्म का अध्ययन भी अलग-अलग दृष्टि से किया जा सकता है। अतः धर्म एक जटिल वस्तु है। उदाहरणस्वरूप प्रत्येक धर्म में उस धर्म के संस्थापक और धर्म-ग्रन्थों के प्रति श्रद्धा की भावना रहती है। इसी प्रकार प्रत्येक धर्म में विश्व के स्वरूप के बारे में मानव जीवन के प्रयोजन नियति और सर्वोच्च लक्ष्य के विषय में कुछ मान्यताएँ शामिल रहती हैं, जिन्हें उस धर्म की विश्व दृष्टि या जीवन दृष्टि कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक धर्म में पूजा उपासना की अपनी-अपनी पद्धति होती है, जन्म, विवाह और मृत्यु से जुड़े कर्मकाण्ड होते हैं, तीर्थस्थान पर पर्व होते हैं। इस प्रकार धर्म के कई पक्ष होते हैं।

धर्म-दर्शन में धर्म का अध्ययन दृष्टि से किया जाता है। दार्शनिक विधि की विशेषताओं में अवधारणाओं का स्पष्टीकरण विश्वासों का समीक्षात्मक मूल्यांकन जैसी विशेषतायें प्रमुख हैं, परन्तु साथ ही इसकी एक विशेषता यह भी है कि इसमें मानव ज्ञान, विश्व के स्वरूप, मानव जीवन के प्रयोजन और नियत से सम्बन्धित मौलिक विषयों पर भी ध्यान केन्द्रित किया जाता है धर्म-दर्शन के लिये भी यह सत्य है। धर्म दर्शन में धर्म से सम्बन्धित बुनियादी सवालों पर चिन्तन किया जाता है। धर्म-दर्शन में धर्म के स्वरूप और धार्मिक विश्वास के आधार की चर्चा तो की ही जाती है, साथ ही साथ विभिन्न प्रकार के धर्मों की आरम्भिक मान्यताओं की भी समीक्षा की जाती है। विशेषकर

मानव-ज्ञान, विश्व के स्वरूप और मानव जीवन के उद्देश्य से सम्बन्धित उन मान्यताओं की समीक्षा की जाती है जिनमें दार्शनिकों की रुचि रहती है। उदाहरण के लिये, धर्म-दर्शन में ईश्वर के अस्तित्व के विषय में हो तो विवेचना की जाती है इसके अलावा आत्मा की अमरता और मुक्ति की समस्या, बुराई या अशुभ की समस्या आदि पर भी चिन्तन किया जाता है।

धर्म-दर्शन का मुख्य विषय ईश्वर विचार है। धर्म-दर्शन ईश्वर-विचार पर केन्द्रित है। धर्म-दर्शन में ईश्वर-विचार के अतिरिक्त अन्य प्रश्नों पर विचार होता है। धर्म-दर्शन में इन प्रश्नों, पर विचार किया जाता है। ईश्वर क्या है? ईश्वर के अस्तित्व के क्या प्रमाण हैं? ईश्वर के क्या गुण हैं? ईश्वर व्यक्तित्व पूर्ण है या व्यक्तित्व शून्य है? मनुष्य और ईश्वर में क्या सम्बन्ध है? अशुभ का स्वरूप क्या है? अशुभ की समस्या का समाधान किस प्रकार सम्भव है? मनुष्य अमर है या मरणशील। अमरत्व के क्या प्रमाण हैं? धार्मिक चेतना के कौन-कौन तत्व हैं? क्या विभिन्न धर्मों के बीच एकता स्थापित की जा सकती है? धर्म की उत्पत्ति के कौन-कौन से सिद्धान्त हैं? धर्म ज्ञान का स्वरूप क्या है? आदि आदि।

उक्त विवेचना से प्रमाणित होता है कि धर्म का स्वरूप क्रिया और मूल्य, एक आदर्श धर्म की विशेषताएँ, मानवीय आत्मा की समस्या, ईश्वर के अस्तित्व के प्रमाण, ईश्वर के गुण, अशुभ का स्वरूप, मूल्य की विशेषताएँ, धार्मिक चेतना के तत्व आदि धर्म-दर्शन के विषय है।

धर्म-दर्शन का विषय अत्यधिक व्यापक है। सभी प्रकार के धर्म उनके विश्वास तथा मान्यताएँ धर्म दर्शन में सम्मिलित हैं। सभी प्रकार की धार्मिक अनुभूतियाँ तथा आचरण धर्म-दर्शन के विषय हैं। धर्म दर्शन अपने विषय की निष्पक्ष व्याख्या प्रस्तुत करता है। वह किसी विशेष धर्म का पक्षपात नहीं करता है बल्कि धार्मिक अनुभूतियों का पक्षपात रहित अध्ययन प्रस्तुत करता है।

संक्षेप में धर्म-दर्शन धर्म का अध्ययन है, लेकिन इसमें एक विशेष दृष्टि से धर्मों के एक बुनियादी और विशेष पक्ष का अध्ययन किया जाता है।

धर्म ऐसे मौलिक विश्वों का, जिन्हें हम मोटे तौर पर 'जीवन दृष्टि के अन्तर्गत रख सकते हैं।

धर्म-दर्शन के स्वरूप की जो उपयुक्त व्याख्या हुई वह आंशिक है। इससे सम्पूर्ण धर्म- दर्शन का चित्र नहीं उभरता है। इसका कारण यह है कि बीसवीं शताब्दी में समकालीन दर्शन की तरह समकालीन धर्म-दर्शन का विकास हुआ है। समकालीन धर्म दर्शन का केन्द्र-बिन्दु धार्मिक भाषा - विश्लेषण कहा जा सकता है। धर्म-दर्शन का लक्ष्य धार्मिक प्रत्ययों का विश्लेषण है। ईश्वर, पवित्रता, मुक्ति, उपासना, सृष्टि, बलिदान, शाश्वत जीवन आदि धार्मिक प्रत्यय है जिनका धर्म- दर्शन विश्लेषण करता है। धर्म के प्रत्ययों के विश्लेषण से धार्मिक भाषा का निर्माण होता है। समकालीन दार्शनिकों का ध्यान धार्मिक भाषा की ओर अत्यधिक जा रहा है। ऐसे दार्शनिकों में रसेल, ए. जे. एयर, राडल्फ, कारनेप, विटनेन्स्टाइन, पाल तीलिक, जी. मैक्रग्रीनर, डब्ल्यू.एफ. जूरडींग का नाम विशेष उल्लेखनीय है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
  2. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित लोक संग्रह की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  3. प्रश्न- गीता के नैतिक या आदर्श सिद्धान्त का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
  4. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिए।
  5. प्रश्न- गीता में वर्णित गुण की विवेचना कीजिए।
  6. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित स्वधर्म की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- गीता में वर्णित योग शब्द की विवेचना कीजिए।
  8. प्रश्न- गीता में वर्णित वर्ण एवं आश्रम का विवेचन कीजिए।
  9. प्रश्न- स्थितप्रज्ञ के लक्षण क्या हैं? क्या मनुष्य जीवन में इस स्थिति को प्राप्त कर सकता है? संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  10. प्रश्न- निष्काम कर्मयोग का परिचय दीजिए।
  11. प्रश्न- गीता में प्रवृत्ति और निवृत्ति से आप क्या समझते हैं?
  12. प्रश्न- कर्म के सिद्धान्त का महत्व बताइए।
  13. प्रश्न- कर्म सिद्धान्त के दोष बताइए।
  14. प्रश्न- कर्मयोग के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  15. प्रश्न- लोक संग्रह पर टिप्पणी लिखिए।
  16. प्रश्न- भगवद्गीता में 'लोकसंग्रह के आदर्श' की विवेचना कीजिए।
  17. प्रश्न- पुरुषार्थ के अर्थ एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  18. प्रश्न- पुरुषार्थ की अवधारणा व विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
  19. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त के रूप में पुरुषार्थ की व्याख्या कीजिए।
  20. प्रश्न- विभिन्न पुरुषार्थ की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  21. प्रश्न- पुरुषार्थ का विश्लेषण कीजिए।
  22. प्रश्न- पुरुषार्थ में सन्निहित मानवीय मूल्यों के अन्तर्सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।
  23. प्रश्न- पुरुषार्थ किसे कहते हैं?
  24. प्रश्न- धर्म किसे कहते हैं?
  25. प्रश्न- अर्थ किसे कहते हैं?
  26. प्रश्न- काम किसे कहते हैं?
  27. प्रश्न- धर्म पुरुषार्थ का जीवन में क्या महत्व है?
  28. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र में 'पुनर्जन्म के सिद्धान्त' की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप परिभाषा दीजिए तथा इसके क्षेत्रों का उल्लेख करते हुए इसकी समस्याओं का विश्लेषण कीजिए।
  30. प्रश्न- धर्म-दर्शन एवं धर्म के परस्पर सम्बन्धों का विश्लेषणात्मक विवेचन कीजिए।
  31. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप की व्याख्या कीजिए। यह ईश्वरशास्त्र से किस प्रकार भिन्न है?
  32. प्रश्न- धर्म और दर्शन में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- धर्म का क्या अभिप्राय है? सामान्य धर्म के लिए मनुस्मृति में किन मानवीय गुणों का उल्लेख किया गया है?
  34. प्रश्न- विशिष्ट धर्म किसे कहते हैं? इसके प्रमुख स्वरूपों की व्याख्या कीजिए।
  35. प्रश्न- सामान्य धर्म और विशिष्ट धर्म में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  36. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? व्याख्या कीजिए।
  37. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के पंचमहाव्रत सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  38. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के अणुव्रत सिद्धान्त का विवेचना कीजिए।
  39. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की तात्विक पृष्ठभूमि का विवेचन कीजिए।
  40. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
  41. प्रश्न- परमश्रेय की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  42. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र में 'त्रिरत्न' की अवधारणा की विवेचन कीजिए।
  43. प्रश्न- बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग की व्याख्या कीजिए।
  44. प्रश्न- 'बोधिसत्व' किसे कहते हैं? स्पष्ट कीजिए।
  45. प्रश्न- निर्वाण के स्वरूप का विवेचन कीजिए।
  46. प्रश्न- 'अर्हत्' पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  47. प्रश्न- बुद्ध के नीतिशास्त्र में साधन विचार का विवेचन कीजिए।
  48. प्रश्न- बौद्ध के नीतिशास्त्र सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  49. प्रश्न- गांधीवाद से आप क्या समझते हैं? राज्य के कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में महात्मा गांधी की विचारधारा का वर्णन कीजिए।
  50. प्रश्न- गांधीवादी दर्शन का मूल आधार धर्म (सत्य और अहिंसा) था, संक्षेप में स्पष्ट करें।
  51. प्रश्न- गांधी जी की कार्य पद्धति पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- सत्याग्रह से आप क्या समझते हैं संक्षेप में समझाइये?
  53. प्रश्न- महात्मा गाँधी द्वारा प्रतिपादित ट्रस्टीशिप सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  54. प्रश्न- गाँधी जी के सात सामाजिक पाप कौन-से हैं?
  55. प्रश्न- गाँधी जी के एकादश व्रत कौन-से हैं? व्याख्या कीजिए।
  56. प्रश्न- नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? परिभाषा देते हुए इसका अर्थ स्पष्ट कीजिए।
  57. प्रश्न- नीतिशास्त्र मानवशास्त्र से किस तरह जुड़ा है? स्पष्ट कीजिये।
  58. प्रश्न- नीतिशास्त्र की विषय-वस्तु क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  59. प्रश्न- नीतिशास्त्र से क्या अभिप्राय है? इसकी प्रकृति एवं क्षेत्र बताते हुए भारतीय एवं पाश्चात्य नीतिशास्त्र में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  60. प्रश्न- नीतिशास्त्र की प्रणालियों पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  61. प्रश्न- टेलीलॉजिकल नैतिकता और कर्तव्य आधारित नैतिकता का क्या अर्थ है? इन दोनों में अन्तर बताइए।
  62. प्रश्न- कान्ट के नैतिक सिद्धान्त को समझाइए।
  63. प्रश्न- नैतिक विकास का क्या अर्थ है? नैतिक विकास के चरणों का उल्लेख कीजिए।
  64. प्रश्न- नीतिशास्त्र एक आदर्श निर्देशक सिद्धान्त है। व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र को प्राथमिक जड़े कहाँ मिलती हैं? स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- क्या नीतिशास्त्र एक विज्ञान है?
  67. प्रश्न- नैतिक तथा नैतिक-शून्य कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  68. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की अवधारणा की व्याख्या कीजिए और उसकी काण्ट के कर्तव्य की अवधारणा से तुलना कीजिए।
  69. प्रश्न- नैतिक कर्म तथा नैतिक-शून्य कर्म में अन्तर लिखिए।
  70. प्रश्न- ऐच्छिक तथा अनैच्छिक कर्मों से आप क्या समझते हैं?
  71. प्रश्न- ऐच्छिक व अनैच्छिक कर्म में अन्तर बताइए।
  72. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? इसका स्वरूप तथा विशेषताएँ बताइए।
  73. प्रश्न- क्या नैतिक निर्णय कर्मों के परिणाम के आधार पर होता है? विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं अन्य निर्णयों में क्या अन्तर है?
  75. प्रश्न- 'साध्यों का साम्राज्य।' व्याख्या कीजिए।
  76. प्रश्न- नैतिक चेतना से आप क्या समझते हैं?
  77. प्रश्न- नैतिक चेतना के मुख्य तत्व बताइए।
  78. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति से आपका क्या तात्पर्य है?
  79. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति के लक्षण बताइए।
  80. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? साधन व साध्य का नीतिशास्त्र में क्या महत्व है?
  81. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं तार्किक निर्णय में अंतर क्या है?
  82. प्रश्न- क्या साध्य साधन को प्रमाणित करता है?
  83. प्रश्न- नैतिक निर्णय की आवश्यक मान्यताएँ क्या हैं? व्याख्या कीजिए।
  84. प्रश्न- नैतिकता की मान्यताओं की व्याख्या कीजिए।
  85. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक मान्यताओं का वर्णन कीजिए।
  86. प्रश्न- नैतिकता में किसका प्राधिकार है "चाहिए" का या आवश्यक का।
  87. प्रश्न- अनैतिक कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  88. प्रश्न- सुखवाद से आप क्या समझते हैं? यह कितने प्रकार का होता है?
  89. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक सुखवाद से आप क्या समझते हैं? समीक्षा कीजिए।
  90. प्रश्न- प्राचीन सुखवाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  91. प्रश्न- विकासवादी सुखवाद क्या है?
  92. प्रश्न- उपयोगितावाद के लिये सिजविक की क्या युक्तियाँ हैं? व्याख्या कीजिए।
  93. प्रश्न- बैन्थम के उपयोगितावाद की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  94. प्रश्न- बैंन्थम के स्थूल परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  95. प्रश्न- मिल के परिष्कृत उपयोगितावाद का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  96. प्रश्न- मिल के परिष्कृत परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  97. प्रश्न- उपयोगितावाद एवं अन्तःअनुभूतिवाद के सापेक्षिक गुणों का संकेत कीजिए।
  98. प्रश्न- कर्मवाद का सिद्धान्त भारतीय दर्शन का मुख्य स्तम्भ है। व्याख्या कीजिए।
  99. प्रश्न- मिल के उपयोगितावाद की प्रमुख विशेषताएं क्या है?
  100. प्रश्न- "सुखवाद के विरोधाभास" को स्पष्ट कीजिए।
  101. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक सुखवाद में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  102. प्रश्न- नैतिक सिद्धान्त के रूप में अन्तः प्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  103. प्रश्न- रसेन्द्रियवाद क्या है? विवेचन कीजिए।
  104. प्रश्न- दार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का समीक्षात्मक विवेचन कीजिए।
  105. प्रश्न- बटलर के अन्तःकरणवाद या अन्तःप्रज्ञावाद सिद्धान्त का विवेचन कीजिए।
  106. प्रश्न- नैतिक गुण के विषय में अन्तः प्रज्ञावाद के विचार का विवेचन कीजिए।
  107. प्रश्न- अदार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  108. प्रश्न- काण्ट के अहेतुक आदेश के सिद्धान्त का आलोचनात्मक विवेचन कीजिए।
  109. प्रश्न- बुद्धिवाद या कठोरतावाद तथा सुखवाद क्या है? वर्णन कीजिए।
  110. प्रश्न- स्टोइकवाद क्या है? व्याख्या कीजिए।
  111. प्रश्न- मध्यकालीन बुद्धिवाद या ईसाई वैराग्यवाद की व्याख्या कीजिए।
  112. प्रश्न- काण्ट के कठोरतावाद के रूप में आधुनिक बुद्धिवाद की व्याख्या कीजिए।
  113. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक सूत्र का आलोचनात्मक परिचय दीजिए।
  114. प्रश्न- काण्ट के नैतिक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
  115. प्रश्न- काण्ट के नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए एवं गीता के निष्काम कर्म से इसकी तुलना कीजिए।
  116. प्रश्न- काण्ट के बुद्धिवादी नीतिशास्त्र का समीक्षात्मक मूल्यांकन कीजिए।
  117. प्रश्न- काण्ट के अनुसार निरपेक्ष आदेश “Categorical Imprative” की व्याख्या कीजिए।
  118. प्रश्न- दण्ड के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं? दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  119. प्रश्न- दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। क्या मृत्युदण्ड उचित है? विवेचना किजिये।
  120. प्रश्न- दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
  121. प्रश्न- दण्ड का अर्थ तथा उद्देश्य क्या है?
  122. प्रश्न- दण्ड का दर्शन क्या है?

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